वन्ध्यत्व
ठीक है सर कर न पाया पार हूँ मैं
ठीक है अब तक पड़ा मंझधार हूँ मैं
जो न तेरे धार में विजयी बनें हैं
कर्म -रत सच्ची कलम की हार हूँ मैं |
पर न इसका अर्थ मैं गतिहीन था
याकि पहुँचे पार जो वे वीर थे
बात इतनी है कि मैं तेरा स्वयं
जबकि उनके पाँव नीचे तीर थे |
चतुर्दिश जय -घोष उनका गूंजता है
नट - तमाशे ढोल -स्वर पर चल रहे
सृजन - रत हलधर उपेक्षित हैं पड़े
मुफ्तखोरे सांड़ कितनें पल रहे |
पर दमामों का दबेगा शोर जब
सत्य का स्वर उभर कर छा जायेगा
उछल कर लघु बूँद सा सहसा , प्रिये
नाम अपना भी कहीं आ जायेगा |
समुद है स्वीकार इस जग की उपेक्षा
पर गला अपना किसी का स्वर न लूँगा
दान काली को करूँगा जीभ अपनी
पर उसी माँ की शपथ मैं वर न लूँगा |
जान लूँगा जब कलम बंध्या हुयी है
रेत का प्रस्तार मन पर छा रहा है
छोड़ प्राणों का अनूठा देश मेरा
कवि कहीं परदेश को प्रिय जा रहा है |
जान लूँगा जब विगत पर जी रहा हूँ
काल से है कट चुका अनुबन्ध मेरा
श्रोत अन्तर के सिमट कर चुक गये हैं
सतह से ही शेष है सम्बन्ध मेरा |
तो नये अंकुर जगाने को धारा में
खाद बनकर देह यह मिल जायेगी
देखते ही देखते इतिहास के सन्दर्भ में
फसल कविता की नयी खिल जायेगी |